धर्म और सत्ता के समानान्तर लोक की रंचणा : जगमोहन चोपता
खेती-किसानी, पशुधन, मायके से आयी ध्याण की समृद्धि कहीं न कहीं इसके केन्द्र में रहती है। ध्याणियों का इनसे लिपट कर रोना उनके प्रेम-संघर्ष, दुख-सुख, सम्पन्नता-गरीबी की साझा अभिव्यक्तियां भी हैं। यहां कोई देवता न तो राजा है, न वह देवत्व के महिमामंडित वैभव से परिपूर्ण। वह यहां होता है तो बुग्यालों का चरवाहा या खेती किसानी करने वाला पहाड़ी किसान!

समाजिक विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते इस बात को खूब सारी जगहों पर पढ़ते रहता हूं कि भूगोल हमारे खान-पान, रहन-सहन के साथ-साथ कई बार हमारे सोचने और अभिव्यक्त करने के तरीको को प्रभावित करता है। इस बात को खूब सारी जगहों पर बोलता भी रहता हूं। बार-बार पढ़ी और बोली गई बात के बीच में अभी गांव में हो रहे एक धार्मिक अनुष्ठान में शरीक होने का मौका मिला।
धर्म को लेकर सहमति-असहमति के परे एक विद्यार्थी के नजरिये से देखता हूं तो भूगोल कैसे सोचने-अभिव्यक्त करने के तरीको को प्रभावित करता है इसके यहां भी दर्शन होते हैं।
कृष्ण और कालिया नाग की कथा तो आपने सुनी होगी। जिसमें वे नाग को हराकर उसके फन में सवार हो जाते हैं।
बस प्रसंग कुछ ऐसा ही है लेकिन लोक की अभिव्यक्ति देखिए। हमारे पहाड़ में पंय्या के पेड़ बहुतायत में पाये जाते हैं।
अक्टूबर-नवम्बर में जब घास-पात सूख रहा होता है तो पंय्या उस वक्त खिलकर प्रकृति में बसंत जैसा माहौल रच देता है। बस इसी पंय्या के पेड़ में कृष्ण खेलने कूदने जाते हैं। वहां उनका पाला नाग से पड़ता है। इससे पहले कि नाग डंश ले गरूड़ आकर उनको आगाह करते हैं। फिर क्या था कृष्ण नाग को नथ्या देते हैं और अपने ग्वाल बाल के साथ ले आते हैं चोपता में जहां बनता है उनका मंदिर।
दूसरा वृतांत कि कृष्ण जब द्वारिका में राज करते करते उकता जाते हैं। तब वे सब छोड़-छाड़ आ जाते हैं पहाड़ घूमने। वहां उनका रमोला लोगों से पाला पड़ता है। वे उनके साथ गाय भेंस के दूध और मख्खन की मांग करते हैं। कृष्ण के साथ हुए संवाद और जुड़ाव से नाग के साथ ही सिद्वा-विद्वा रमोला का मंदिर भी बन पड़ता है।
यहां मजेदार बात देखिए नाग की विशुद्ध सात्विक पूजा होती है। लेकिन पहाड़ में मांस के बिना कैसे हो सकता है तो सिद्वा-विद्वा को बकरा भी चढ़ता है।
मुख्य कथाओं में नाग और कृष्ण दुश्मन जैसे प्रतीत होते हैं या फिर भगवान और दास जैसे। लेकिन यहां कृष्ण और नाग समकक्ष हैं और दोनों ही साथ नाचते हैं, गाते हैं, रोते हैं, लिपटते हैं।
मुख्य कथाओं में द्वारिकाधीश के तौर पर उनका वैभव या मथुरा के राज परिवार के ठाट बाट का वर्णन है। लेकिन लोक के जागरों में वे रमोला लोगों से भैंस के दूध और मक्खन को मांगने वाले फकीर और गाय भैंस खरीदने वाले साधारण ग्वाले हैं।
हां एक चीज बहुत साम्य है। मुख्य धारा में लिखे गये वेदों में जहां खूब सारी प्रक्रियाओं का जिक्र है। बस उसी के समानान्तर पहाड़ की अपनी दुधभाषा में इन कथाओं का वर्णन है। भाषाई और विवरणों के हिसाब से यह उच्च साहित्यिक अभिव्यक्ति लगती है। जिनमें खेती करने, फसलों के संरक्षण, पशुधन और पारिवार जनों की रक्षा को काव्यात्मक अभिव्यक्ति का लोकनृत्य है।
नाग बनाने के लिये भी धान की भूसी को कपड़े के अन्दर भरकर तैयार किया जाता है। कृष्ण के साथ सभी ग्वाल बाल द्वारा इसको टिमरू के डंडों के सहारे लाया जाता है। मुख्य धारा के धार्मिक आख्यानों को अपने भूगोल के अनुसार कैसे अभिव्यक्त किया गया यहां इसका बहुत ही सुंदर उदाहरण मिलता है। मुख्य धारा के आख्यानों की परवाह किये बगैर उनके जागर, मंडाण, घुड़यौत लगाने की जो प्रक्रिया है उसके पीछे कहीं न कहीं यहां का भूगोल मुख्य भूमिका निभाता है। इन सबके बीच खेती-किसानी, पशुधन, मायके से आयी ध्याण की समृद्धि कहीं न कहीं इसके केन्द्र में रहती है। ध्याणियों का इनसे लिपट कर रोना उनके प्रेम-संघर्ष, दुख-सुख, सम्पन्नता-गरीबी की साझा अभिव्यक्तियां भी हैं। यहां कोई देवता न तो राजा है, न वह देवत्व के महिमामंडित वैभव से परिपूर्ण। वह यहां होता है तो बुग्यालों का चरवाहा या खेती किसानी करने वाला पहाड़ी किसान!
साभार : जगमोहन चोपता ।
गजब है मेरा भाई तो , H इनकी लेखनी का कहना ही क्या , इनकी बारली एक्सप्रेस तो सुपरहिट रही 😊😊😊🙏🙏🙏🙏
Bahut subdar chaa …. 🙏🏻🙏🏻🙏🏻Mindblowing …👌👌👌gajab