साहेब ! पलायन से डर नहीं लगता है , वह अब आम हो चुका है….!
उत्तराखंड में जल्द ही एक हजार से ज्यादा प्राइमरी स्कूल बंद होने जा रहे हैं यदि गढ़वाल मंडल की बात करें तो लगभग 1365 प्राइमरी स्कूलों को बंद करने की तैयारी है, और यहाँ तक 17 से बेरोजगार प्रभावित राज्य के नौनिहाल भी दसवीं अथवा बारहवीं तक पहुंचते-पहुंचते पढ़ाई से नाता तोड़ रहे हैं। स्थिति यह है कि 2016-17 के दौरान माध्यमिक शिक्षा में 15 हजार से अधिक और प्राथमिक शिक्षा में दो हजार से अधिक विद्यार्थी स्कूल छोड़ चुके हैं।
राज्य सरकार यह स्वीकार करती है कि आजादी के 70 वर्ष और राज्य स्थापना को 17 वर्ष बाद भी, पहाडों से पलायन में कोई कमी नहीं हुई है। वहीं इसके ठीक विपरीत सीमा के दूसरी तरफ विकास वर्ष दर वर्ष नई ऊँचाईयाँ छू रहा है l राज्य में, अनेकों मुद्दे ज्वलंत है लेकिन विशेषकर पर्वतीय क्षेत्रों से निरंतर पलायन एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आयी है। उम्मीद थी कि…….. आगे पढ़ें हिमांशु पुरोहित की रिपोर्ट

कोई भी राज्य अपना अस्तित्व अपनी सांस्कृतिक विरासत वहां रह रहे लोगों के स्वामित्व से पाता है। लेकिन देश के 27वें राज्य उत्तराखंड का दुर्भाग्य यह है कि बुनियादी सुविधाओं (स्कूल, अस्पताल, मोटर रोड, बिजली, पानी आदि) के आभाव के कारण यहाँ के पहाडी एवं सीमांत क्षेत्रों में गाँव के गाँव पलायन करने को असहाय हैं। योजना आयोग को प्रस्तुत किए गए ‘उत्तराखंड ऐनुअल प्लैन 2017-18‘ में माननीय मुख्यमंत्री त्रिवेंदर सिंह रावत जी ने स्वीकारा है कि ‘रोजगार के अभाव में राज्य के संवेदनशील पहाडी एवं सीमांत इलाकों से निरंतर पलायन हो रहा है जिसके कारण पहाडों में जनसंख्या का धनत्व विरल हो रहा है और हाल फ़िलहाल में ही इसके लिए राज्य सरकार ने पलायन आयोग का गठन भी किया था और साथ ही साथ पर्वतीय क्षेत्रों में पलायन को रोकने के लिए आवासीय विद्यालयों और छात्रावास की स्थापना करने का वादा भी किया था लेकिन हाल की जानकारी के आधार पर उत्तराखंड में जल्द ही एक हजार से ज्यादा प्राइमरी स्कूल बंद होने जा रहे हैं यदि गढ़वाल मंडल की बात करें तो लगभग 1365 प्राइमरी स्कूलों को बंद करने की तैयारी है, और यहाँ तक 17 से बेरोजगार प्रभावित राज्य के नौनिहाल भी दसवीं अथवा बारहवीं तक पहुंचते-पहुंचते पढ़ाई से नाता तोड़ रहे हैं। स्थिति यह है कि 2016-17 के दौरान माध्यमिक शिक्षा में 15 हजार से अधिक और प्राथमिक शिक्षा में दो हजार से अधिक विद्यार्थी स्कूल छोड़ चुके हैं।

राज्य सरकार यह स्वीकार करती है कि आजादी के 70 वर्ष और राज्य स्थापना को 17 वर्ष बाद भी, पहाडों से पलायन में कोई कमी नहीं हुई है। वहीं इसके ठीक विपरीत सीमा के दूसरी तरफ विकास वर्ष दर वर्ष नई ऊँचाईयाँ छू रहा है । राज्य में, अनेकों मुद्दे ज्वलंत है लेकिन विशेषकर पर्वतीय क्षेत्रों से निरंतर पलायन एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आयी है। उम्मीद थी कि उत्तराखंड बनने के बाद इसकी रफ्तार थमेगी, लेकिन स्थिति में रत्तीभर भी बदलाव नहीं आया, बल्कि इसमें और तेजी आई है। अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि 17 साल के दरम्यान तीन हजार से अधिक गांव खाली हो चुके हैं। 2011 की जनगणना के आंकड़ों पर ही गौर करें तो ढाई लाख से अधिक घरों में ताले लटके हुए हैं। यही नहीं, पलायन के चलते जहां गांव खाली हुए हैं, वहीं शहरी क्षेत्रों पर जनसंख्या का दबाव बढ़ा है। इस सबको देखते हुए मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने राज्य में पलायन आयोग के गठन का ऐलान किया था। इसके लिए पहले नियोजन विभाग कसरत कर रहा था, लेकिन फिर ग्राम्य विकास विभाग को नोडल विभाग बना दिया गया। अब आयोग का विधिवत गठन किया जा चुका है।
बरहाल, निरंतर जारी पलायन को लेकर विभिन्न संस्थाओं ने तो शोध तो किए, लेकिन सरकार के स्तर से अभी तक इस दिशा में शोध अथवा अध्ययन नहीं हुए थे। अब राज्य का नियोजन विभाग और दून विश्वविद्यालय पलायन की समस्या, कारण और समाधान विषय पर शोध में जुटे हैं। यदि हमारे नाबालिग उत्तराखंड के बालिग नेता पलायन पर शोध करने बजाय धरातल पर कार्य करते तो राज्य निर्माण से आज तक राज्य का अधिकांश युवा देश में छोटे बड़े शहरों में न रह कर उत्तराखंड की आर्थिक व्यवस्था का हिस्सा होते l यही नहीं कृषि क्षेत्र में भी पर्वतीय भूभाग में लगभग 1.05 लाख हेक्टेयर से अधिक कृषि भूमि बंजर हो चुकी है ।
आज उत्तराखंड की स्थिति यह है कि ठेकेदारों, नौकरसाहों और राजनेताओं की मिली भगत से हरे-भरे पहाड बुल्डोजरों की मार खा रीयल एस्टेट या कंकरीट के जंगल की जद में आ रहे हैं। नैनीताल, रुद्रप्रयाग, मुक्तेश्वर, मसूरी आदि कहीं भी देख लीजिए, भू-माफिया दिनों-दिन अवैध रूप से मध्य हिमालयी श्रृंखला के इस अति संवेदनशील भू-भाग को सरकार की आँखों के सामने नष्ट करने में लगा हुआ है। विडम्बना यह भी है कि विकास के इस उपनिवेशवादी रवैये, जिसमें पहाडों के हरे जंगलों को कंक्रीट की ठंडी चादर से ढक उसे आर्टिफीसियल विकास का लिवाज पहनाया जा रहा है । उसमें यहाँ के बाशिंदों के लिए कोई स्थान नहीं है। ये भव्य आलिशान रिसौर्ट, विला, अंर्तराष्ट्रीय स्कूल इत्यादी, आम पहाडी की पहुँच से कोसों दूर हैं। उसकी तो इतनी भी हैसियत नहीं रह गई की उसे इनके निर्माण हेतु एक मजदूर की नौकरी मिल सके। इनके निर्माण के लिए मजदूर भी अब मैदानी क्षेत्र से लाये जाते हैं ।
यदि अभी भी पलायन से पहाड़ के विधवापान के अंत का प्रयास ना किया गया तो ना फिर पहाड़ में कोई होगा, ना पहाड़ होगा और ना होगी पहाड़ की संस्कृति ।
शोधपरख पलायनवादी सोच हेतु सार्थक पहल । पलायन विषय पर अनगिनत लेखनीयों ने अपने विचार दिये हैं किन्तु तथ्यात्मक लेख हेतु बधाई हिमांशु जी ।
स्तिथि यही है ।
सारगर्भित लेख!समाधान भी हमें ही ढूंढना है
पहाड़ की यह पीड़ा बहुत ही गंभीर है