अब पहाड़ की नारी, खेल रही है नई पारी ! काम कोई भी हो उसे करने में दिक्कत कहाँ आ री ।
सुखद आश्चर्य इसलिए कि पहाड़ की महिलाएं तो क्या पुरुष भी इस कार्य करने को राजी नहीं। हम दसवीं, बारहवीं, बीए,एमए, बीटेक करते हैं और डिग्रियां कागज में लपेटकर ‘उंदू’ (मैदानी क्षेत्र) रवाना हो जाते हैं। हम दिल्ली, चंडीगढ़,मुंबई से पहले गाडी़ नहीं रुकवाते। हम वर्कशॉप खोलने की तरफ नहीं सोचते, वेल्डिंग करने की नहीं सोचते, कारपेंटरी और चिनाई की तरफ भी रुझान नहीं रखते। छोटे-मोटे ऐसे कामों पर ध्यान दें तो पहाड़ में काम की कमी नहीं है। हमारी शहर प्रभावित मनोदशा का अंदाजा देखिए कि बैंड वाले बिजनौर और श्रीनगर से बुला रहे हैं, जबकि कुछ औजियों (वाद्य कलाकार) के लड़के नौकरियों के लिए देहरादून-दिल्ली की धूल फांक रहे हैं।
बहरहाल, इस कर्मठ बहन की सोच, निर्भीकता, संघर्ष, दक्षता, स्वाभिमान,दायित्व निर्वहन और ग्राहक सेवा भाव को उतनी बार प्रणाम करता हूं,जितनी बार सांस लेता हूं।

मैं देहरादून आ रहा था। गाडी़ के एक टायर में हवा कम थी। पंक्चर की आशंका पर एक छोटे वर्कशॉप के आगे गाडी़ रोकी। वहाँ एक युवक और एक व्यक्ति बाइक को ठीक कर रहे थे। एक महिला एक ट्यूब पर पंक्चर ढूंढ़ रही थी। महिला कम व्यस्त दिखी,परंतु मैं निश्चित नहीं था कि वह वर्कशॉप में काम भी करती होगी। मैंने युवक से कहा-भुला (छोटे भाई) ! मेरी गाडी़ देख ले यार पहले।
मेरे शब्द सुनकर और जल्दबाजी वाली मेरी स्थिति भांप महिला ने ट्यूब वहीं फेंकी और एक हाथ में हवा मापक यंत्र तथा दूसरे में हवा भरने का पाइप पकड़ कर सीधे मेरी गाडी़ के पिचके टायर के पास आ गई। मेरी दृष्टि टायर से अधिक महिला के कार्य करने के तरीके पर केंद्रित हो गई। उसने फटाफट हवा भरने के बाद टायर का वाल्व और बाहरी परत चेक की और पांच मिनट में परिणाम दे दिया कि टायर पंक्चर की आपकी आशंका निर्मूल है। साथ ही अन्य टायरों पर भी हवा चेक की। किसी से अतिरिक्त हवा निकाली,किसी में भर दी। यह भी ताकीद किया कि आगे और पीछे के टायरों में न्यूनतम और अधिकतम हवा कितनी रहनी चाहिए। यही नहीं, डिक्की खुलवाकर स्टेपनी में भी हवा डाली, जिसके प्रति हवा भरने वाले और चालक प्रायः उदासीन रहते हैं। मैं न
केवल महिला की दक्षता पर नतमस्तक था,अपितु उसकी कर्तव्यपरायणता पर भी शीष नवा रहा था। मेरी गाडी़ में बैठे मेरे साथी प्राध्यापक भी इस घटना पर अत्यंत प्रभावित थे।
यह वाकया देवप्रयाग का है और सुखद आश्चर्य इसलिए कि पहाड़ की महिलाएं तो क्या पुरुष भी इस कार्य करने को राजी नहीं। हम दसवीं, बारहवीं, बीए,एमए, बीटेक करते हैं और डिग्रियां कागज में लपेटकर ‘उंदू’ (मैदानी क्षेत्र) रवाना हो जाते हैं। हम दिल्ली, चंडीगढ़,मुंबई से पहले गाडी़ नहीं रुकवाते। हम वर्कशॉप खोलने की तरफ नहीं सोचते, वेल्डिंग
करने की नहीं सोचते, कारपेंटरी और चिनाई की तरफ भी रुझान नहीं रखते। छोटे-मोटे ऐसे कामों पर ध्यान दें तो पहाड़ में काम की कमी नहीं है। हमारी शहर प्रभावित मनोदशा का अंदाजा देखिए कि बैंड वाले बिजनौर और श्रीनगर से बुला रहे हैं, जबकि कुछ औजियों (वाद्य कलाकार) के लड़के नौकरियों के लिए देहरादून-दिल्ली की धूल फांक रहे हैं।
बहरहाल, इस कर्मठ बहन की सोच, निर्भीकता, संघर्ष, दक्षता, स्वाभिमान,दायित्व निर्वहन और ग्राहक सेवा भाव को उतनी बार प्रणाम करता हूं,जितनी बार सांस लेता हूं।
-डा.वीरेंद्र बर्त्वाल, देहरादून, Dr. Veerendra Bartwal . Dehradun