उत्तराखण्ड में राजनीतिक अस्थिरता के चलते मिले डेढ़ दशक में 8 सीएम ..... !
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No Political Alternative is There in Uttarakhand : कोई राजनीतिक विकल्प नहीं है उत्तराखंड में …!

Raju pusola
By:  Raju pusola 

विकल्प की तलाश करता एक उत्तराखंडी ….! 

विकल्प ….. जी हाँ विकल्प , यह शब्द उत्तराखंडियों के लिए अब तक दूर की कौड़ी रहा है। इसका लाभ राजनितिक पार्टियों और नेताओं को खूब मिला। उनके पास तो विकल्प ही विकल्प हैं । राज्य गठन के बाद 9 नवंबर 2000 को भाजपा के पास इतने विकल्प थे कि किसे मुख्यमंत्री बनाया जाए। चार दावेदारों ने तो खूब जोराजमाइश् की लेकिन स्वामी जी के भाग से छींका फूटा। बाकी तीन स्वामी जी का विकल्प बनने को हमेशा जद्दोजेहद करते रहे । पहले चुनाव की घडी आ गयी। पहाड़ पर “प्लेन”

उत्तराखण्ड में राजनीतिक अस्थिरता के चलते मिले डेढ़ दशक में 8 सीएम ..... !
उत्तराखण्ड में राजनीतिक अस्थिरता के चलते मिले डेढ़ दशक में 8 सीएम ….. !

कैसे उतरा इसका जवाब देने से भाजपा डर गयी, विकल्प तलाशा तो धोती और टोपी वाला मिला। उम्मीद थी कि जनता को “भगत जी” लुभाने में सफल होंगे, लेकिन जनता के पास कोई और विकल्प तो था नहीं, सो 2002 में कांग्रेस को चुनना पड़ा। कांग्रेस के पास भी कम विकल्प नहीं थे। “हरदा” से लेकर “महाराज” तक और ‘बहुगुणा जी’ की विरासत को आगे बढ़ने का विकल्प भी था। लेकिन यहाँ तजुर्बा सब पर भारी पड़ा और नारायण “नारायण” हुए। पूरे पांच साल तक उत्तराखंडियों ने “नौछमी” लीला देखी। बहुत से विकल्प हो सकते थे, लेकिन बने नहीं।सपा को राज्य निर्माण का विरोधी होने का दंश उबरने नहीं दे रहा था और बहनजी पहाड़ चढ़ने को राज़ी नहीं थी। कहा जाता है, वो प्रकृति की मोहमाया से दूर थी और पैदल चलना उन्हें तकलीफ देता था । सो उत्तराखंड उनकी पसंद कभी रहा ही नहीं। क्रांति करने के लिए एक दल बना तो लोगों को उम्मीद जगी लेकिन महत्वाकांक्षा का दल-दल उसे लील गया। अब बताइये बचा था कोई विकल्प। 2007 के चुनाव में भाजपा की लाटरी लगी। इस बार भी पार्टी के पास कुर्सी एक थी और विकल्प ज़्यादा। हाई कमान का निर्देश हुआ और कमान एक “जनरल” के हाथ में थी। लेकिन जनरल गणवेशधारियों के साथ कदमताल नहीं कर पाये। दिल्ली को उनका विकल्प तलाशने में कोई शंका नहीं थी सो “निशंक” ताजपोशी हुई।

तेज़ रफ़्तार क़दमों से चलने की आदत अच्छी बात होती है, लेकिन लड़खड़ाने का खतरा भी तो होता है। सो “डॉक्टर साहब” के लड़खड़ाते ही “भुवन” और “भगत” दिल्ली की और दौड़ पड़े। फौजी तो फौजी ठहरा एक बार फिर रेस जीत गया। दूसरी बार कमान मिली। जंग का मैदान होता तो निश्चित ही जनरल दुश्मनो के दांत खट्टे कर देते, लेकिन यहाँ तो कुर्सी के लिए अखाडा सजा था। जहाँ साम, दाम, दंड और भेद के दांव पेंच चलने थे।जिसकी ट्रेनिंग सेना में नहीं दी जाती और जनरल अपनों से हार गए। विकल्प को तरसती जनता क्या करती।2012 में एक बार फिर कांग्रेस की जीत हुई। जिसकी आदत आज़ादी के बाद से ही कांग्रेस को पड़ चुकी थी। जीत का सेहरा किसके सर पहनाया जाये यह सवाल उठा।जल्द ही विकल्प मिल गया। हिमालय पुत्र के पुत्र को हिमालयी राज्य की बागडोर सौंप दी गयी। लेकिन ये क्या ! पिताजी ने बिज्जू को राजनीति से ज़्यादा वकालत पढ़ा दी, और फिर वही हुआ जिसका डर था। आपदा आ गयी। जी नहीं, केदारनाथ वाली नहीं इस बार 10 जनपथ में आई थी। हरदा ने विकल्प बनने की पूरी तैयारी कर रखी थी। सो आपदा से निपटने की ज़िम्मेदारी भी उन्हें ही दे दी गयी। बड़े “बहुगुणा जी” की संतान को पुत्र मोह ले डूबा। इस बीच महाराज भी पार्टी को अलविदा कह गए।रावतजी खुश थे कि रस्ते का एक कांटा और दूर हो गया। जश्न का माहौल था। नए-नए ब्रांड की शराब परोसी जा रही थी। हरदा नाचने-बजाने में इतने लीन हो गए की गृहयुद्ध की भनक तक नहीं लगी। “बीजापुर” दरबार में सलाहकारों की भारी भरकम फ़ौज थी,सो किसी सलाहकार ने डील करने की सलाह दी। रोज़ बड़े बड़े कैमरों से घिरे रहने वाले “रावतजी” छोटा कैमरा नहीं देख पाये। भाजपा को बागियों के रूप में सत्ता पाने का विकल्प मिला, लेकिन 99 के फेर में 9 पर अटक गए। भाजपा हाईकमान ने भी शरारत कर दी।सरकार तो नहीं बना सके पर अशोक स्तम्भ का विकल्प तो था ही । केंद्र सरकार, राज्य सरकार, विधान सभा अध्यक्ष, भाजपा और बागी सब त्रिशंकु हो गए। लेकिन सबके पास विकल्प था। सबने झील किनारे बने एक मंदिर में शरण ली।कमाल देखिये जिस न्याय के मंदिर पर सबकी आस टिकी है उसके पास कितने विकल्प हैं। जवाब मांगने का विकल्प, नोटिस देने का विकल्प, एकल बेंच व् डबल बेंच का विकल्प। कुछ और नहीं तो तारीख देने का विकल्प तो है ही। लेकिन आपके पास क्या विकल्प है? ….जरा सोचिए !

लेखक दैनिक जागरण में फोटो पत्रकार हैं । 

Youth icon Yi National Creative Media Report 05.05.2016

By Editor