Ye kaisi astha : एक खौफनाक आस्था ! जिसे देख आपकी भी रूह कांप जाएगी । हिंदुस्तान में कब ? कहाँ ? क्यों ? और कैसे होता है आस्था का यह भयानक खेल बता रहे हैं ब्रजेश राजपूत .. आगे पढ़ें विस्तार से । Ye kaisi astha : एक खौफनाक आस्था ! जिसे देख आपकी भी रूह कांप जाएगी । हिंदुस्तान में कब ? कहाँ ? क्यों ? और कैसे होता है आस्था का यह भयानक खेल बता रहे हैं ब्रजेश राजपूत .. आगे पढ़ें विस्तार से । 

Ye kaisi astha : एक खौफनाक आस्था ! जिसे देख आपकी भी रूह कांप जाएगी । हिंदुस्तान में कब ? कहाँ ? क्यों ? और कैसे होता है आस्था का यह भयानक खेल बता रहे हैं ब्रजेश राजपूत .. आगे पढ़ें विस्तार से । 

लेख : ब्रजेश राजपूत, पत्रकार , समीक्षक (मध्य प्रदेश)

वो दीवाली के एक दिन पहले की ही बात है जब आफिस से फोन आया कि उज्जैन के पास जिस गांव में दीवाली के दूसरे ही दिन गायों के पैरों के नीचे लोग लेटते हैं वहां की स्टोरी चाहिये और वो भी रिपोर्टर की उपस्थिति के साथ। आमतौर पर ऐसी कहानियां हर साल स्टिंगर से ही कराते थे मगर इस बार बात अलग थी। उज्जैन के साथी विक्रम सिंह ने बताया कि उज्जैन से करीब 75 किलोमीटर दूर भिडावद गांव है जहंा गौरी पूजा के नाम पर ये खेल होता है। मगर सुबह पौ फटते ही ये दस्तूर निभा लिया जाता है जहंा सजी हुयी भागती गायों के सामने गांव के लोग लेट जाते है इसलिये आपको भोपाल से जल्दी ही आना होगा वरना जरा देर होने पर सब खत्म हो जाता है। बस फिर क्या था दीवाली की रात जल्दी पूजा कर बेटू बुलबुल के साथ थोडे से पटाखे फोडकर रात दस बजे हम अपने कैमरामेन साथी होमेंद्र के साथ उज्जैन के रास्ते में थे। रास्ते भर पटाखों का शोर गूंज रहा था मगर हमारा मन कल सुबह

Ye kaisi astha : एक खौफनाक आस्था ! जिसे देख आपकी भी रूह कांप जाएगी । हिंदुस्तान में कब ? कहाँ ? क्यों ? और कैसे होता है आस्था का यह भयानक खेल बता रहे हैं ब्रजेश राजपूत .. आगे पढ़ें विस्तार से । 
एक खौफनाक आस्था !

की उथेडबुन में जुटा था। कैसे और कितनी सुबह उस गांव पहुंचे कि सब कुछ आसानी से कैमरे में कैद हो जाये।
उज्जैन की शिप्रा होटल में थोडा सोकर हम तडके चार बजे फिर उज्जैन से निकल पडे थे बडनगर तहसील के आगे बसे गंाव भिडावद की ओर। मगर मैं ये देखकर हैरान था कि हमारी तो अभी सुबह हो रही थी मगर और भिडावद के रास्ते के गांवों में बहुत पहले ही सुबह हो चुकी थी। साथ में चल रहे अनूप पौराणिक ने बताया कि दीवाली के दूसरे दिन यहां गौडपडवा मनाते हैं यानिकी घर के बच्चे और बडे नहा धोकर गांव भर के बडे बूढों के पैर पडने निकल पडते हैं। गांव भर में इन बच्चों की धूम थी जो राह चलते लोगों के पैर छूकर आशीर्वाद ले रहे थे। वाह
उधर भिडावद में हमें भटकना नहीं पडा गांव के बाहर ही गौरी माता का मंदिर था जहां से भजन की आवाज आ रही थी। मंदिर में आठ नवयुवक कंधे पर कंबल रखकर बैठे हुये थे ये वही लोग थे जिनको आज गौरीपूजा में गायों के आगे लेटना था। इन सभी ने मन्नत मांगी हुयी थी कोई पांच साल से मन्नत कर रहा था तो किसी का इस बार पहला साल था। ये सारे लोग चार दिन पहले से उपवास पर हैं एक समय खाते हैं मंदिर मे ही रात गुजारते हैं और नंगे पैर रहते हैं। इन्हीं में से सुनील बताता है कि उसने मन्नत की थी कि बहन के घर बेटा होगा तो तीन साल गौरी पूजा करूंगा बहन की गोद भर गयी है और वो इस बार माता जी के सामने हैं। थोडी देर बाद ही इनको नहाने को कहा जाता है और नहाने के बाद गीले कपडे ये लोग हाथ में पूजा की थाली लिये गांव की गलियों में थे। आगे आगे ढोल नगाडे फिर ये आठ युवक और इनके पीछे गांव के लोगों की अच्छी भीड। सभी इनको देख आदर से प्रणाम कर रहे थे। गांव के पूर्व सरपंच कैलाश पांचाल बताते हैं कि हमें याद नहीं ये परंपरा कब से चल रही है बचपन से तो हम देखते ही आ रहे हैं मगर बुजुर्गों से सुना है पहली बार गांव के किसी भील ने मन्नत मांगी और पहली बार वो गायों के आगे लेटा था तब से हर साल गौरी पूजा में मन्नत मांगने वालों की भीड बढती जा रही है। एक तरफ इन युवकों की शोभायात्रा निकल रही थी तो कुछ दूरी पर ही गांव के सारे मवेशियों को इकटठा कर उनको दौडाने की तैयारी की जा रही थी। जिस गली से उनको गुजरना था वहां से उनको दो तीन दफा दौडा दिया गया था। उधर आज के इस खौफनाक नजारे को देखने के लिये लोग गली में तो खडे ही थी कच्चे पक्कों छज्जों पर भी अच्छी भीड जमा हो गयी थी। उज्जैन से कई पत्रकार और कैमरामेन भी आ गये थे जो इस नजारे को बेहतर तरीके से कैमरे में कैद करने के लिये भीड में जगह बना रहे थे। स्मार्ट फोन लिये सोशल मीडिया के सिपाही भी यहंा कई दिख रहे थे। भीड में खडी युवती जानकी के सामने जब हमने बात करने के लिये माइक लगाया तो उसने इस परंपरा के बारे में तो बताया ही मगर ये डर भी बताया कि हमारे ससुराल वालों ने हमको इस भीड में देख लिया तो

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डांटेगे ये आप दिखाना नहीं।
उधर गांव का चक्कर लगाकर ये युवक गली में आ गये थे इनको लिटाने की तैयारी हो रही थी कुछ के चेहरे पर जुनून तो कुछ डरे दिखे। इनके सर पर कंबल लपेट दिया गया था हाथ शरीर से चिपका दिये गये थे। लोग तेज बजते ढोल के बीच गांव के बूढे गौरी के भजन उंचे स्वर में गा रहे थे उधर भागने को तैयार गायों को मुश्किल से रोका जा रहा था। इधर हम और होमेंद्र जब तक जगह तलाशते गायों को छोड दिया गया। सैंकडों गायों को हमारी तरफ आते देख जब तक मैं एक तरफ होता एक दो गायों ने टक्कर मार ही दी और बढ चलीं रास्ते की और उधर लेटे लोगों को देखकर गायें ठिठक रहीं थी मगर पीछे से हो रहे शोर के कारण जहां जगह मिलती पैर रखकर निकल रहीं थीं। इन युवकों पर एक दो गाय गिरीं भीं, लेटे हुये युवकों के सिर पर गायों के खुर टकरा रहे थे उनके पैर और पीठ पर गायें बचते हुये पैर रख रहीं थीं ये दृश्य देखा नहीं जा रहा था मगर कुछ ही मिनट में सैकडों गायें इन युवकों के उपर और आस पास से गुजर गयीं। बस फिर क्या था इन युवकों को उठाया गया और ये क्या ये सारे युवक नाचने लगे और निकल पडे मंदिर की ओर वापस।
धर्म और आस्था के नाम पर जान जोखिम में डालने वाला ये खेल इस गांव में कई साल से ऐसे ही चल रहा है आप दुहाई देते रहिये अंधविश्वास को छोड आंखे खोलने की मगर जानवर के आगे जानवर बनने वालों को कोई फर्क नहीं पडता।
ब्रजेश राजपूत,
एबीपी न्यूज, भोपाल

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