कन्हैया
  • Satish Lakhera , 

मुद्दा…. !

लेखक : सतीश लखेड़ा
लेखक : सतीश लखेड़ा

इस दौरान जनमानस के विमर्श में धारणा बन रही है मीडिया खासकर आकाशी मीडिया अतिरिक्त ऊर्जा और आग्रहों से लैस है वह जो चाह रहा है वह दिखा रहा है। हम सब उसकी राय को अपने अंतर्मन की आवाज मानने की गलती भी कर रहे हैं।  मीडिया हाउस खबर चलाने के अपने मूल काम के बजाय सरकार चलाने, गिराने, कोसने और धमकाने की मुद्रा में आमादा हैं। जेएनयू की घटना के पक्ष या विपक्ष में मीडिया ही था, उसी की राय सर्वोपरि थी, उसी के बयान बहादुर ऐंकर रिपोर्टर अपने निजी नजरिये और पूर्वाग्रहों के साथ स्क्रीन पर नमूदार थे। नेता, राजनैतिक दल लगभग लुप्त थे या स्टोरी के हिसाब से उनके बयान दिख रहे थे। आखिर ऐसा क्या हो गया था देश में कि तथाकथित चौथा खम्भा तीनों खम्भों को ओवरटेक कर चुका था।  खबर बेचने की लड़ाई थी ? टीआरपी का संघर्ष था ?या सरकार के पक्ष या विपक्ष को घेरने का सुनहरा अवसर ? लाइव डिबेट में मनपसन्द उत्तर न मिलता देख एंकर के गुस्सा अचम्भित कर रहा था।

भाई, तुम्हारा काम है जो घटित हुआ उसको बताना, शेष काम दर्शक का मगर अपनी जिम्मेवारी की लक्ष्मणरेखा लांघकर डिक्टेट करने की लगातार भूल पेशे की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर रही है। मीडिया के मालिकानों के निजीहित, निजी

कन्हैया
कन्हैया

अहंकार कभी भी इस विद्रूप तरीके से सामने नहीं आये हैं। एक चैनल कांग्रेस के प्रवक्ता को पूछता है कि कन्हैया के परिवार की “गरीबी का कारण आपकी सरकारें रही हैं, जवाब दीजिये।” दूसरे चैनल पर बीजेपी के प्रतिनिधि से पूछा जाता है कि ” क्या राष्ट्रभक्ति का सर्टिफिकेट बीजेपी या संघ से लेना होगा ” यह ‘मीडिया रिमाण्ड’ आश्चर्यजनक है।

सबको पता है नारे लगे, कौन कौन से नारे थे, उनकी तासीर क्या थी, कौन ये सब करवा रहा था इसकी पड़ताल हमारे अन्वेषी मीडिया ने नहीं की, वो काबिल मीडिया जो बगदादी का ठिकाना और उसके कल रात के डिनर का मेन्यू बता देता है उसे कुछ पता नहीं या वह जानना नहीं चाहता। भले ही आत्महत्या करने वाले किसानों का विषय मीडिया को अपील न करे मगर उमर खालिद टीवी चैनल पर बाकायदा अतिथि के तौर पर आमन्त्रित किया जाता है। कांग्रेस के खेमे से अफजल गुरु ‘जी’ की आवाज आती है तो बीजेपी के बयानवीर पार्टी से निष्कासित होने की सीमा तक बयानबाजी कर डालते हैं।कौन इन सवालों पर बोलेगा।

भारत गणतन्त्र का मीडिया जिसके पास बहुत गरिमामय विरासत और विश्वसनीयता है वह इस दौरान की घटनाओं से बहुत प्रभावित हुआ है। सब करंजिया नहीं हो सकते न ऐसे हालात हैं। इस खबरिया भगदड़ में अनेक टीवी पत्रकारों की पहचान, प्रतिष्ठा और निष्पक्षता प्रभावित हुयी है। सोसल मीडिया पर उन्हैं बहुत बुरा भला कहा गया है। मीडिया हाउस का दलों और सरकारों के प्रति सॉफ्ट या हार्ड नजरिया रहा है किन्तु पेशेवर संतुलन से पत्रकार कभी पार्टी नहीं बने।

कन्हैया तो बहाना है,मोहरा है आज नही तो कल स्पष्ट हो जायेगा। बात मीडिया के उस झुण्ड या तबके की है जो जनमानस में मीडिया की निष्पक्ष छवि की कीमत पर अनेक अवसरों पर मनमानी करता दिख रहा है।
कन्हैया को हीरो बनाना, प्राइम टाइम डिबेट का विषय बनाना, उसके भाषण का लाइव, फिर बार बार भाषण चलाना आखिर क्या था। एक तरफ भले ही जेल के दौरान कन्हैया का बाहर मीडिया ट्रायल चल रहा था  दूसरी ओर उसे कड़ी फटकार और हिदायत के साथ मुचलके पर रिहा किया गया। उसकी रिहाई पर मीडिया द्वारा राष्ट्रव्यापी प्रसारण ऐसा प्रतीत हुआ न जाने पाकिस्तान की जेल से यातनायें सहकर कोई देशभक्त रिहा होकर आया हो। भाषण में देश के प्रधानमन्त्री पर अशालीन टिप्पणी उस भाषण को सेलेबल मानकर बार बार चलाया जाना, कन्हैया के भाषण की आड़ में अपने निशाने साधकर मीडिया अपनी पसन्द नापसंद की छवि खुद गढ़ रहा है।

केजरीवाल, हार्दिक पटेल के बाद कन्हैया तीसरा सबसे बिकाऊ प्रोडक्ट के रूप में सामने आया है। मीडिया की सुविधानुसार उसका उपयोग हो भी रहा है। मीडिया उसके परिवार की तीन हजार की आमदनी बता रहा है, उमर खालिद को भटका नौजवान बता रहा है। कन्हैया को मासूम, साजिश और डॉक्टर्ड वीडियो का शिकार बताया जा रहा है किन्तु जेएनयू के रजिस्ट्रार भूपिन्दर जुत्सी के आधिकारिक बयान को जगह नहीं दी गयी जब जुत्सी को पता चला कि अफजलगुरू पर कार्यक्रम है तो उन्होंने कार्यक्रम की अनुमति नहीं दी जिसपर जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया आगबबूला हो गया।

हमारे देश का मीडिया जो पाकिस्तान से क्रिकेट में जीत हार पर एक आम देशवासी की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है उसका अचानक पूरी दुनिया के सामने भारत का चेहरा प्रायोजित तरीके से बदरंग करने के प्रयास समझ से परे हैं।

इस देश की आस्तीन में साँप पलते रहे हैं , जहाँ देश की मर्यादा या अखण्डता का विषय आया उसके खिलाफ देश, समाज, राजनैतिक दल हर विधा के लोग आगे आये हैं और मीडिया इन सबमें अग्रणी भूमिका में रहा है। कन्हैया के बहाने मीडिया के वर्तमान व्यवहार पर निष्कर्ष तो जल्दबाजी होगी किन्तु चिन्ता वाजिब है।

सतीश लखेड़ा
स्वतन्त्र स्तंभकार

By Editor

14 thoughts on “असल मुद्दा, कन्हैया तो बहाना है …… !”
  1. धन्यवाद मैठाणी जी,,
    आपने मेरे विचारों को अपने वृहत मंच पर स्थान दिया।

    1. सतीश लखेड़ा जी आपके विचारों मे कहीं न कहीं समाज की भलाई नजर आई मुझे और आपने वर्तमान परिप्रेक्ष मे जो भी बाते लिखी हैं वह अकाट्य सच है । उम्मीद करता हूँ कि आप आगे भी इसी तरह अन्य सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक मसलों पर पाने समीक्षात्मक लेख हमे भेजते रहेंगे । धन्यवाद ।

  2. लखेड़ा जी का विश्लेषण आईना दिखाता है इन मीडिया हाउसों को। मीडिया कन्हैया के पीछे जिस तरह पागल था चिंताजनक है। वहीं इस लेख से समाज को भी एक सन्देश जाता है अब हर खबर पर यूँ आँख मुंन्दे विस्वास करना भी ठीक नहीं जो मीडिया जज भी खुद और वकील भी खुद हो।

  3. behad santulit lekh. loktantra ke har stambh ki aam jan ke prati ek jimmedari hoti hai.

    1. समाज में सबकी बराबर जिम्मेदारी बनती है ।

  4. समाज में सबकी बराबर जिम्मेदारी बनती है ।

  5. मीडिया अब समाचार वाहक कम और समस्या वाहक अधिक नज़र आने लगा है जो दुर्भाग्यपूर्ण है।

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