मुखौटा पहनकर अवतरित हुए गणेश भगवान ।

Youth icon yi Media logoDevbhumi Uttrakhand : जहां मुखौटा पहनकर  आते है देवता….! 

Pankaj mandoli , Srinagar , Yi Report
Pankaj mandoli, Srinagar , Yi Report

उत्तराखंड के जोशीमठ क्षेत्र के कई गांव मुखौटा शैली के लिए प्रसिद्ध हैं। खास तौर से पैनखंडा क्षेत्र में हर वर्ष चैत्र-वैशाख में अनुष्ठानों के दौरान देव नृत्यों में मुखौटों (पत्तरों) का प्रयोग होता है। सलूड़-डूंग्रा की ‘रम्माण’ को यूनेस्को ने विश्व सांस्कृतिक धरोहरों में शुमार किया है। तपोवन घाटी के गांवों की इस परंपरा एवं गढ़वाल की लोक संस्कृति पर लम्बे समय से काम कर रहे गढ़वाल विश्वविद्यालय के शोध छात्र दीपक बिष्ट के साथ पंकज मैन्दोली की बातचीत पर आधारित एक विस्तृत रिपोर्ट।

मुखौटा पहनकर अवतरित हुए गणेश भगवान ।
मुखौटा पहनकर अवतरित हुए गणेश भगवान ।
जोशीमठ से पांच किमी दूर बड़ागांव में हर वर्ष बैसाखी के दिन भूम्याल या चंडिका की उत्सव मूर्ति के मंदिर से बाहर आने पर 14 से 18 दिन का अनुष्ठान शुरू होता है। हर रात चैक में ग्रामीणों के पारंपरिक चांचड़ी-धाकुड़ी नृत्य के साथ उत्सव की शुरूआत होती है। इसके बाद मोर नामक पात्र आता है जो जोकर की तरह मनोरंजन करता है। मुख्य उत्सव से कुछ दिन पहले मोरेण, लाटा-लाटी, गन्ना-गुन्नी, नारद (बुढ़देवा), कोतवाल आदि पात्र क्रमशः बाहर आते हैं।
यहां मुख्यतः ‘हस्तोला’ व ‘गरूड़ छाड़’ एक-एक वर्ष के अन्तर पर आयोजित होते है। हस्तोला चंडिका के अनुष्ठान से संबंधित (देवी द्वारा हस्सी नामक दैत्य का वध) है। गरूड़ छाड़ में प्रभु श्रीकृष्ण की मूर्ति को एक रस्सी पर ऊंचाई वाले स्थान से मुख्य कार्यक्रम स्थल तक सरकाया जाता है। हस्तोला व गरूड़ छाड़ में गणेश, सूरज, ब्रह्मा, शिव, नारद, विष्णु, नृसिंह, राम,लक्ष्मण,सीता, चंडिका आदि देव मुखौटों के अलावा हिरन, फुर्चेली, मालों का नृत्य होता है।
ढाक- तपोवन के पास ढाक गांव में अनुष्ठान को ‘चैत्वोल कौथिग’ कहा जाता है। इसमें भूम्याल व भगवती की पूजा होती है। संक्रांति से एक दिन पूर्व भगवती को मंदिर से बाहर लाया जाता है। अगले दिन सब ग्रामीण घर में रोपी गई हरियाली से देवी की पूजा करते हैं, भेंट लगती है और भूम्याल का निशाण गांव का भ्रमण करता है। अनुष्ठान 8-10 दिन तक चलता है। रात को ग्रामीण पारंपरिक नृत्य करते हैं, फिर मोर व कन्ना (बुढ़देवा) आदि विभिन्न पात्र आते हैं। मुख्य अनुष्ठान के लिए 18 पत्तरों का नृत्य होता है। इसमें गणेश,विष्णु, ब्रह्मा, महादेव, सूर्य, सन्यासी -वैरागी, माल, राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान व ताल पंवार (भरत -शत्रुघ्न) नृत्य प्रमुख हैं।
देवांगन में मुखौटा नृत्य : एक धार्मिक आस्था और विश्वास का प्रतीक है ।
देवांगन में मुखौटा नृत्य : एक धार्मिक आस्था और विश्वास का प्रतीक है ।

सुक्की गाँव- जोशीमठ से करीब 30 किमी दूर सुक्की पैनखंडा क्षेत्र का अंतिम गांव है जहां पत्तर नाचते हैं। यहां मुखौटे 150 साल से भी पुराने बताए जाते हैं जो अन्य जगहों से काफी अलग भी हैं। गांव में ‘बिखौदी’ या ‘बिसूक’ अनुष्ठान हर दूसरे साल होता है। कुल देवी चंडिका से संबंधित यह अनुष्ठान 10-14 दिन चलता है। एक निश्चित दिन देवी के मुखौटे व गणेश की प्रतिमा को गांव के चैक में लाया जाता है, शेष दिनों देवी की यहीं पूजा होती है। रात के कार्यक्रम अन्य गांव की तरह ही हैं।

मोर को लेकर हर गाँव में भिन्न धारणा है। सलूड़-डुंग्रा में इसे दूध बेचने वाला, सुक्की में देवताओं का नौकर मानते हैं। मोर मुख्य रूप से भान (एक तरह से निर्देशक) से वार्ता करता है। मोर हरकारा (संदेशवाहक) को बुलाता है, जो उसे उसे राजद्वारा (देवताओं के स्थान) पहुंचने के संबंध में चिट्ठी देता है। इसके बाद मोर चंडिका को पूजा देता है व खुद पर विभिन्न देवताओं के अवतरण का नाटक करता है। भिन्न-भिन्न लोग हर दिन मोर का अभिनय करते हैं। मुख्य उत्सव से 4-5 दिन पहले मोरनी, फिर लाटा-लाटी बाहर आते हैं।
मुख्य उत्सव के दिन पहले नारद फिर क्रमशः गणेश, शिव- गौरा, ब्रह्मा, विष्णु, कौड्या-ब्रह्म ऋषि, बंचू-बंच्याण, चोर व बाघ के मुखौटे नृत्य करते हैं। इसके बाद भरत, शत्रुघ्न व सीता का नृत्य होता है। 10 तालों के बाद राम, लक्ष्मण, हनुमान व वानर सेना उत्सव स्थल पर आते हैं। यहाँ राम, लक्ष्मण, सीता, भरत व शत्रुघ्न का नृत्य होता है। यह दृश्य श्रीराम के वनवास वापसी से संबंधित है। सीता का मुखौटा व नृत्य केवल सुक्की में ही होता है अन्य जगह नहीं। उत्सव का समापन गोपीचंद राजा, कान राजा व राधिका रानी के नृत्य से होता है। रात में बुढ़देवा (नारद) भी दर्शकों के बीच होता है, जो दर्शकों का मनोरंजन करता है।
मुखौटा परंपरा विशुद्ध लोक संस्कृति है। चाहे वो सलूड़-डुंग्रा का रम्माण, बड़ागांव का हस्तोला-गरूड़ छाड़, ढाक के चैत्वोल, सुक्की का बिखौदी, हर अनुष्ठान ने मुखौटा शैली का संसार सहेज कर रखा है। हालांकि रम्माण को अंतरराष्ट्रीय पहचान मिल चुकी है फिर भी इस परंपरा को बचाने के लिए गंभीर प्रयासों की जरूरत है।

*प्रस्तुति : पंकज मैंदोली,     

Copyright: Youth icon Yi National Media, 02.08.2016

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