हरीश रावत को पहाड़ का नेता माना जाता है लेकिन आज जिस तरह से समस्त पहाड़ वासियों मुख्यमंत्री रावत की ओर से निराशा हाथ लगी उससे सभी स्तब्ध हैं हैरान परेशान हैं ।

Youth icon yi Media logoSurya Asta : युगपुरूष बनते-बनते रह गए हरीश रावत ….!

*पहाड़ बनाम मैदान की सियासत में हासिए पर गैरसैंण । 

*सरकारों की कमजोर इच्छाशाक्ति के कारण नहीं मिल पा रही स्थाई राजधानी । 

*दीक्षित आयोग की रिपोर्ट भी नहीं रखती सरकारों के लिए कोई मायने । 

*ऋषिकेश के आईडीपीएल, रामनगर, काशीपुर और गैरसैंण में था स्थाई राजधानी बनाने का सुझाव । 

Shashi Bhushan Maithani ‘Paras’ Editor Youth icon Yi National आज यह साफ हो गया है कि राजधानी के सवाल पर हरीश सरकार पहले भी निरुत्तर थी और आज भी निरुत्तर ही है । लेकिन जनता 16 साल से सफेदपोशों से जवाब मांग रही है, और जिसने भी इस मुद्दे को सत्ता पाने के लिए इस्तेमाल किया उसे जनता ने सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाने में देर नहीं की । आप तो इस बात को भली भांति समझतें है गांव, गाय, गंगा व गाड-गदेरों के पैरोकार हरीश रावत जी ! गैरसैंण राजधानी के प्रश्न को यक्ष प्रश्न मत बना रहने दीजिए रावत साहब । इसका हल आचार संहिता लगने से पहले निकालिए, नहीं तो कहीं ऐसा न हो कि गैरसैंण में राजधानी का पूरा खाका खींच कर भी आप 2017 हाथ मलते रह जाएं और आने वाले समय में पूरा श्रेय कोई और ले जाए ।
Shashi Bhushan Maithani ‘Paras’ 
आज यह साफ हो गया है कि राजधानी के सवाल पर हरीश सरकार पहले भी निरुत्तर थी और आज भी निरुत्तर ही है । लेकिन जनता 16 साल से सफेदपोशों से जवाब मांग रही है, और जिसने भी इस मुद्दे को सत्ता पाने के लिए इस्तेमाल किया उसे जनता ने सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाने में देर नहीं की ।
आप तो इस बात को भली भांति समझतें है गांव, गाय, गंगा व गाड-गदेरों के पैरोकार हरीश रावत जी ! गैरसैंण राजधानी के प्रश्न को यक्ष प्रश्न मत बना रहने दीजिए रावत साहब । इसका हल आचार संहिता लगने से पहले निकालिए, नहीं तो कहीं ऐसा न हो कि गैरसैंण में राजधानी का पूरा खाका खींच कर भी आप 2017 हाथ मलते रह जाएं और आने वाले समय में पूरा श्रेय कोई और ले जाए ।

मौका भी था, दस्तूर भी था, मगर मन में कश-म-कश चल रही थी। शायद  मन की इसी कश-म-कश में उलझ कर रह गया वह फैसला जिसका इंतजार पूरे पहाड़ की आवाम को था । अगर वो फैसला हो जाता तो शायद पहाड़ के हर घर में चाहे वह किसी भी दल के समर्थक का हो हरीश रावत की जय जयकार जरूर होती । लेकिन ऐसा होते-होते रह गया । राज्य के जनमानस को पूरा यकीन था कि गांव, गाय, गंगा व गाड-गदेरों के पैरोकार हरीश रावत को गैरसैंण से परहेज कभी नहीं हो सकता है ! जनभावनाओं से जुड़ा मुद्दा होने के कारण आम जन को पूरी उम्मीद थी कि गैरसैंण विधान सभा सत्र स्थायी राजधानी के समाधान के रूप में सामने आयेगा और यही सही समय भी था जब हरीश रावत को गैरसैंण के रूप में जनमानस को उम्मीद का एक नया सवेरा दिखना था । लेकिन ऐसा हो न सका । और हर बार कि तरह इस बार भी जनता की भावनाएं आहत हुई ।

गैंरसैण में स्थायी राजधानी का मुद्दा एक अनसुलझी पहली की तरह है। इसका सबसे बड़ा कारण जो नजर आता है वह है पार्टियों का वोट बैंक । राज्य गठन से अब तक सत्ता सुख भोगने वाली सरकारों की कमजोर इच्छाशाक्ति और पहाड़ बनाम मैदान के साथ ही वोंट बैंक की सियासत ही इसकी मुख्य वजह रही है। साफ है कि पहाड़ की अपेक्षा मैदान में विधानसभा सीटें ज्यादा हैं। और वर्तमान राजनीतिक परिदृय को देखते हुए मैदान के नेताओं के साथ ही आम जनता भी गैरसैंण के पक्ष में लामबंध नजर नहीं आती । सरकार भी यह बात जानती है कि गैरसैंण को राजधानी बनाने में लिए गये उसके तमाम फैसलों पर मैदानी जनता की पूरी नजरें हैं । सरकार को यह डर सता रहा है कि अगर गैरसैंण राजधानी को लेकर कोई भी फैसला लिया तो 2017 विधानसभा चुनाव में उसका पूरा गणित गड़वड़ा सकता है । क्यों कि यह मुद्दा पहाड़ बनाम मैदान बन सकता है ।
गैंरसैण में स्थायी राजधानी का मुद्दा एक अनसुलझी पहली की तरह है।
इसका सबसे बड़ा कारण जो नजर आता है वह है पार्टियों का वोट बैंक । राज्य गठन से अब तक सत्ता सुख भोगने वाली सरकारों की कमजोर इच्छाशाक्ति और पहाड़ बनाम मैदान के साथ ही वोंट बैंक की सियासत ही इसकी मुख्य वजह रही है। साफ है कि पहाड़ की अपेक्षा मैदान में विधानसभा सीटें ज्यादा हैं। और वर्तमान राजनीतिक परिदृय को देखते हुए मैदान के नेताओं के साथ ही आम जनता भी गैरसैंण के पक्ष में लामबंध नजर नहीं आती । सरकार भी यह बात जानती है कि गैरसैंण को राजधानी बनाने में लिए गये उसके तमाम फैसलों पर मैदानी जनता की पूरी नजरें हैं । सरकार को यह डर सता रहा है कि अगर गैरसैंण राजधानी को लेकर कोई भी फैसला लिया तो 2017 विधानसभा चुनाव में उसका पूरा गणित गड़वड़ा सकता है । क्यों कि यह मुद्दा पहाड़ बनाम मैदान बन सकता है ।

भराड़ीसैंण की नई नवेली विधानसभा में गैरसैंण राजधानी  मुद्दे पर मौजूदा सरकार भी उतनी ही असहज दिखी जितनी इससे पहले की सरकारें रहीं है । राज्य गठन से ही गैरसैंण पर्वतीय राज्य की राजधानी की अवधारणा का प्रतीक रही है । मगर पहाड़ और मैदान की सियासत में गैरसैंण नेपथ्य में चला गया । भाजपा शासित अंतरिम सरकार से लेकर खंडूड़ी सरकार तक राजधानी का सवाल हासिए पर रहा । बेशक पहाड़ की राजधानी पहाड़ में बनाये जाने की हिमायती ये तर्क गढते रहे कि गढ़वाल और कुमाऊं के मध्य गैरसैंण में शिमला की तर्ज पर राजधानी बनने की पूरी संभावनाएं हैं। मगर देहरादून में बैठी सरकार को अब भी गैरसैंण पर संशय है। राजधानी के सवाल पर वह भी पिछली तमाम सरकारों की तरह से बचाव की मुद्रा में है।

उत्तराखण्ड की स्थायी राजधानी के लिए एक सदस्यीय दीक्षित आयोग का गठन किया था। आयोग ने टैक्निकली और जनमत के आधार अपनी रिपोर्ट तैयार की थी। रिपोर्ट में चारों स्थानों का चयन किया गया था, जिसमें देहरादून के ऋषिकेश के आईडीपीएल, रामनगर, काशीपुर और गैरसैंण जैसे स्थान शामिल किए गए थे। राजधानी के बनाने के लिए 500 हेक्टेयर भूमि का आवश्यकता बताई गई थी। इसके बाद सरकार ने दिल्ली स्कूल अफ आर्किटेक्चर एंड प्लानिंग से गैरसैंण में भूगर्भीय सर्वेक्षण भी कराया गया था। मानकों और जनमत के आधार पर गैरसैंण राजधानी बनने के लिए उपयुक्त जगह थी। लेकिन इसके बावजूद भी आज तक आयोग की रिपोर्ट  पर कोई निर्णय नहीं लिया गया हैं। इस आयोग को 12 बार एक्सटेंशन दिया जा चुका है । तब से गैंरसैण में स्थायी राजधानी का मुद्दा एक अनसुलझी पहली की तरह है।

इसका सबसे बड़ा कारण जो नजर आता है वह है पार्टियों का वोट बैंक । राज्य गठन से अब तक सत्ता सुख भोगने वाली सरकारों की कमजोर इच्छाशाक्ति और पहाड़ बनाम मैदान के साथ ही वोंट बैंक की सियासत ही इसकी मुख्य वजह रही है। साफ है कि पहाड़ की अपेक्षा मैदान में विधानसभा सीटें ज्यादा हैं। और वर्तमान राजनीतिक परिदृय को देखते हुए मैदान के नेताओं के साथ ही आम जनता भी गैरसैंण के पक्ष में लामबंध नजर नहीं आती । सरकार भी यह बात जानती है कि गैरसैंण को राजधानी बनाने में लिए गये उसके तमाम फैसलों पर मैदानी जनता की पूरी नजरें हैं । सरकार को यह डर सता रहा है कि अगर गैरसैंण राजधानी को लेकर कोई भी फैसला लिया तो 2017 विधानसभा चुनाव में उसका पूरा गणित गड़वड़ा सकता है । क्यों कि यह मुद्दा पहाड़ बनाम मैदान बन सकता है । और उसका वोट खिसकर दूसरों दलों के पास जा सकता है । इस लिए सरकार मैदानी जनता की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहती । इसी कश-म-कश में वर्तमान मुख्यमंत्री हरीश  रावत भी कहीं न कहीं उलझे हुए हैं। पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने गैरसैंण में उम्मीद का पत्थर रखकर जनभावना के अनुरूप फैसला लेने की शुरूआत जरूर की लेकिन वो कुछ कर पाते इससे पहले ही उन्हें मुख्यमंत्री पद से विदा होना पड़ा।

हरीश रावत को पहाड़ का नेता माना जाता है लेकिन आज जिस तरह से समस्त पहाड़ वासियों मुख्यमंत्री रावत की ओर से निराशा हाथ लगी उससे सभी स्तब्ध हैं हैरान परेशान हैं ।
हरीश रावत को पहाड़ का नेता माना जाता है लेकिन आज जिस तरह से समस्त पहाड़ वासियों मुख्यमंत्री रावत की ओर से निराशा हाथ लगी उससे सभी स्तब्ध हैं हैरान परेशान हैं ।

आज यह साफ हो गया है कि राजधानी के सवाल पर हरीश सरकार पहले भी निरुत्तर थी और आज भी निरुत्तर ही है । लेकिन जनता  16 साल से सफेदपोशों से जवाब मांग रही है, और जिसने भी इस मुद्दे को सत्ता पाने के लिए इस्तेमाल किया उसे जनता ने सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाने में देर नहीं की ।

आप तो इस बात को भली भांति समझतें है गांव, गाय, गंगा व गाड-गदेरों के पैरोकार हरीश रावत जी ! गैरसैंण राजधानी के प्रश्न को यक्ष प्रश्न मत बना रहने दीजिए रावत साहब ।  इसका हल आचार संहिता लगने से पहले निकालिए,  नहीं तो कहीं ऐसा न हो कि गैरसैंण में राजधानी का पूरा खाका खींच कर भी आप 2017 हाथ मलते रह जाएं और आने वाले समय में पूरा श्रेय कोई और ले जाए ।

तुम बि सुणा मिन सुण्याली, गढ़वाळ ना कुमौ जाली उत्तराखण्डै राजधानी, बल देरादूणि मा राली दीक्षित आयोगन् बोल्याली वूंन ब्वलण छौ बोल्याली, हमुन् सुण्ण छौ सुण्याली या बि लड़ै लगीं राली, या बि लड़ै लगीं राली लड़ै हमरी लगीं राली.............. राज से पैलि राजधानी, त्यै छै पर सरकार नि मानी गढ़वाळ कुमौ का बीच, जनतान् गैरसैंण ठानी ठाण्याली त ठाण्याली, या बि लड़ै लगीं राली लड़ै हमरी लगीं राली......................... नौ बर्सूं मा स्ये कि जागी, धन्य हो पण्डाजी पैलागी पैंसठ लाख रूप्या खर्चि कि, देरादूण अब खोज साकी जनता का पैंसौं कि छर्वाळी, या बि लड़ै लगीं राली गैरसैंण बल भ्यूंचळा कि डर, राजकाज बल कन्न कै हूण सुख सुविधा कुछ बि नि छन वख, हमरु छंद त देरादूण अफसर नेतौंन् सोच्याली, या बि लड़ै लगीं राली लड़ै हमरी लगीं राली........................ अल्लकनन्दा पिण्डर घाटी, नित बगणीन् काणि नी दीक्षित आयोगजी बोन्ना छन, गैरसैंण बल पाणि नी यखै जल सम्पदा भैर जाली, या बि लड़ै लगीं राली लड़ै हमरी लगीं राली............................ कांग्रेस भाजपा नि रैनी, कबि गैरसैंण का हक मा सड़कूं मा बि सत्ता मा बि यूकेडी जकबक मा सरकार कब तक बौगा सारली, या बि लड़ै लगीं राली लड़ै हमरी लगीं राली.............
तुम बि सुणा मिन सुण्याली, गढ़वाळ ना कुमौ जाली
उत्तराखण्डै राजधानी, बल देरादूणि मा राली
दीक्षित आयोगन् बोल्याली
वूंन ब्वलण छौ बोल्याली, हमुन् सुण्ण छौ सुण्याली
या बि लड़ै लगीं राली, या बि लड़ै लगीं राली
लड़ै हमरी लगीं राली…………..
राज से पैलि राजधानी, त्यै छै पर सरकार नि मानी
गढ़वाळ कुमौ का बीच, जनतान् गैरसैंण ठानी
ठाण्याली त ठाण्याली, या बि लड़ै लगीं राली
लड़ै हमरी लगीं राली…………………….

सत्र समाप्त हो गया । लेकिन जिस सवाल के जवाब का इंतजार पूरी देवभूमि को था वह एक बार फिर सवाल बन कर ही रह गया। और आहत पहाड़ का जनमानस गढरत्न नरेन्द्र सिंह नेगी के उस गीत को गुनगुनाने लगा जो उन्होंने गैरसैंण राजधानी को लेकर नेताओं द्वारा की जा रही सियासत पर लिखा था।

 

 

©  शशि भूषण मैठाणी ‘पारस’ ,  

Copyright: Youth icon Yi National Media, 18.11.2016

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